Thursday 27 June 2019

श्री लटियाल स्त्रोत

#प्रणम्य_लट्टियाल मां विवेक बोधदायनी
नवल जोशी
 #श्रीलटियाल_स्तोत्र
छन्द #पञ्चचामर में

माँ लटियाल विनय गाथा

नवल जोशी
¤ श्री लटियाल विनयगाथा...(२)
                   - नवल जोशी रचित
(कल प्रेषित काव्यरचना का शेषांश
छंद संख्या ५से ९,छप्पय व पाठफल)
                    #छंद-सारसी#
 #शिवशंभवाणी शंखपाणी निर्मलाणी नाहरी
जनहीन जंगळ मांय मंगळ जगमगाणी जाहरी ।
आशापुराणी माडराणी ईशराणी *आवड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥५॥

  *आवड़ी= लोकपूज्य आवड़ माता
                          (संदर्भ ग्रंथों के अनुसार शास्त्रोक्त देवी हिंगलाज के प्रथम पूर्णावतार के रूप में प्रतिष्ठित लोकदेवी-आवड़ा/आवड़ी,आई माता,तनोटराय,तेमड़ाराय,भादरियाराय, घंटियाली आदि 52 नामों से विभिन्न स्थानों पर पूजी जाती है,जिनमें एक नाम 'लटियाल' भी है ॥५॥)

#सिणगार सुंदर पाट मन्दर आभमण्डल केशरी
आलोक ओजस ताप तेजस रूप राजस ईशरी ।
सद्काज आयुध धार चौकस सिंह पर असवारड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥६॥

ब़ाजंत ब़ाजा घोर गाजा स्वार-सांझां आरती
डमडम्म डंकां नाद शंखां दिग-दिगंतां भारती ।
नारेळ चढ़ता माथ नमता पावड़ी दर पावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥७॥

जन-आपदा दुख दूर करणी खेम करणी खेमदा 
आई *असांजै नगर नाजै हीय *मांझै हेमदा ।
फलवृद्धिका फलदाय भक्तन पालिका परचावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥८॥
*असांजै=हमारे           *मांझै=मेरे/भीतर

माता विलक्षण पूत-रक्षण गुण सुलक्षण दीजिये
अरदास बारम्बार अम्बा आस पूरण कीजिये ।
कवि 'नवल' भज्जे काज सज्जे लाज रखजे आवड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥९॥

¤ छप्पय:
अवनी नगर उदार , प्राचि दिस द्वार फळोदी ।
दिव्य धाम दरबार , परम लटियाळ प्रमोदी ॥
प्रबल भक्त प्रतिपाल , सबल सिंह पीठ सवारी ॥
मरु लटियाळी मात , भव्य दरसण भवतारी ॥
सदकाज सगळा सिद्ध कर-आबद्ध कवि 'जोशी' कथै ।
भर अंक रखजै बद्ध माँ हरवक्त आसीसां मथै ॥

                   ¤ छंद- सारसी ¤                             ¤ पाठ-फळ-
आ विनयगाथा विनत माथा पाठ साचा जो करै
सुख सांयती निधि नेह व्यापै सिद्धि साध्यां वापरै ।
कर दूर कंटक मेट संकट विकट जट सुलझावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥

#सद साल चहुवत्तर हजारी दोय आसू माह नै
सुद आठमी तिथि कवि ह्रिदै लटियाळ हरसी आयनै ।
गाथा रचाई आप माई कण्ठ कवि विरदावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥

#विक्रम संवत 2074 तिथि आश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन माँ लटियाल की परम पुनीत प्रेरणा से इस रचना का सृजन हुआ
                      © कवि नवल जोशी
                 
संपूर्ण रचना की स्लाइड सज्जा के लिये श्री Morardan Gadhavi,कार्तिकेय आर्ट्स,मोरझर(कच्छ) गुजरात का हार्दिक आभार

Wednesday 26 June 2019

माँ लटियाल विनयगाथा अर्थ सहित

.#श्री_लटियाळ_विनयगाथा
(कथा संदर्भ सहित)
#कवि_नवल_जोशी रचित { लटियाल भक्त }
( #श्री_लटियाल माता का प्रसिद्ध शक्तिपीठ पश्चिम राजस्थान के #फलोदी नगर में स्थित है )
¤ दूहा ¤
जगजाहिर मरु जांमणी , जन ध्यावत जगतम्ब ।
असल राय #आथूण री , अटल मात अवलम्ब ॥१॥पिछम राय लटियाळ रा , #परचा प्रतख प्रमांण ।
सुजन राजवी रंक सब , भजत उगंता भांण ॥२॥#आथूण =पश्चिम/पिछम #परचा=परिचय/चमत्कार¤ छंद-सारसी ¤#मरुदेश गोदी में फळोदी विघ्नरोधी रज्जिका
लटियाळ देवी सरबसेवी है सदैवी सज्जिका ।
विरदाळ माई पुर बसाई छतर छाई छांवड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥१॥- मरुप्रदेश की गोद में 'फलोदी' नगर को बसाने वाली,नगर पर छत्र की भांति छाया करने वाली,वहाँ की विघ्न रहित रजकण में अनुपम सजधज के साथ विराजमान हे लटियाल माता ! हमारी व्याधियों और बाधाओं को दूर करो ॥१॥#'जैसाण' नुगरा जांण *'आसनि' त्याग 'सिद्धू' चालिया
तज खेत-थाळा ले उचाळा हेर गाडा हालिया ।
माँ आप संगे सींव लंघे ध्रुव दिसंगे धावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥२॥
#जैसाण=जैसलमेर *आसनि=आसनीकोट नामक ग्राम#कथा-संदर्भ :-
- उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार विक्रमाब्द 15वीं सदी के उत्तरार्ध से 16वीं सदी के पूर्वार्ध में जैसलमेर(जैसाण) रियासत के ग्राम आसनीकोट में रहने वाले 'सिद्धू कल्ला' नामक लुद्रवंशीय पुष्करणा ब्राह्मण देवी भगवती के अनन्य उपासक थे और क्षेत्र के प्रभावशाली नेतृत्वसंपन्न व्यक्तित्व भी ।तत्कालीन असुरक्षित राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अपनी ईष्ट देवी की प्रेरणा से उन्होंने अपने मित्र-बांधवों व संरक्षित परिवारों सहित आसनीकोट त्याग कर बैलगाड़ियां जोत कर गांव से उत्तर दिशा की ओर पलायन कर लिया ।कूच में दल के सबसे आगे की बैलगाड़ी पर देवी माता के विग्रह को प्रतिष्ठित किया गया ।140 बैलगाड़ियों के साथ यह काफिला दिन-रात चलते हुए कुछ दिनों बाद जैसलमेर राज्य की सीमा से बाहर निकल आया ॥२॥#झंखाड़-झाड़ा जबर जाळा खाड-खाळा खूंदिया
कोसां दुरादुर ताळ-तालर धोर-भाखर रूंदिया ।
अधबीच *ओरण आय *धोरण खेजड़ै अटकावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥३॥*ओरण=अरण्य/जंगल *धोरण=धोरा धरती में रहने वाली- उल्लेखनीय है कि यह पलायन चौमासे में (भादो-आश्विन माह में) हुआ था । ऐसे में झाड़-झंखाड़ों, खंदकों-नालों,पहाड़ियों,नालों,तालाबों ,धोरों ,मैदानों को रौंदते हुए ,कोसों लम्बे रास्तों के संकटों को झेल कर सिद्धू कल्ला के नेतृत्व में यह काफिला एक उजाड़ जंगल से गुजर रहा था कि अचानक देवी माँ के विग्रह वाली अग्र बैलगाड़ी के पहिये एक विशाल खेजड़े से भिड़ कर जड़ों के साथ अटक गये और लाख प्रयत्नों के बाद भी टस से मस नहीं हुए ।इसी जद्दोजहद में खेजड़े का एक तना जड़ से जुड़े रहकर भी जमीन की तरफ कमान की तरह लटक(लचक) गया ।(यह खेजड़ा आज भी उसीतरह लचका हुआ मंदिर परिसर में मौजूद है) ।कहते हैं तब उस काफिले को उसी जंगल में डेरा डालने की प्रेरणा हुई ॥३॥#शुभदाय नखतां नींव रखतां थांन सिद्धू थापियौ
आदेश पायां पुर बसायां नाम निसदिन जापियौ ।
सद साल पंद्रै सौ पँदर पट राज पद परखावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥४॥-कहते हैं इसप्रकार बैलगाड़ी के अटकने,खेजड़े के लटकने और देवी माँ के नटने (आगे बढ़ने से इंकार करने) के दैवीय संकेत को स्वीकार कर सिद्धू कल्ला के काफिले ने उसी स्थान पर बसना तय किया ।शुभ मुहुर्त में (आश्विन शुक्ल अष्टमी संवत 1515 में) देवी माँ की प्रतिमा को उसी खेजड़े के निकट प्राणप्रतिष्ठित किया गया और पूजा-अर्चना प्रारंभ की गई ॥४॥(कहा जाता है कि खेजड़े के लटकने और देवी द्वारा केश-लटें बिखेरते हुए सिर हिलाने (आगे बढ़ने से 'नटने') जैसे संकेतों के फलस्वरूप माता का यह स्वरूप 'लटियाल' नाम से प्रसिद्ध हुआ ।इस उजाड़ स्थान को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान के फलस्वरूप 'फला' नाम की एक महिला,जो संभवतः सिद्धू कल्ला की बहन या पुत्री थी, के नाम पर बस्ती का नामकरण 'फलाधी' 'फलोधी' अथवा फलवृद्धिका किया गया । उल्लेखनीय है कि राजस्थानी में 'धी' शब्द का अर्थ पुत्री होता है ।'फला धी'अर्थात फला नामक पुत्री ।)#शिवशंभवाणीशंखपाणी निर्मलाणी नाहरी
जनहीन जंगळ मांय मंगळ जगमगाणी जाहरी ।
आशापुराणी माडराणी ईशराणी *आवड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥५॥
*आवड़ी= लोकपूज्य आवड़ माता
(संदर्भ ग्रंथों के अनुसार शास्त्रोक्त देवी हिंगलाज के प्रथम पूर्णावतार के रूप में प्रतिष्ठित लोकदेवी-आवड़ा/आवड़ी,आई माता,तनोटराय,तेमड़ाराय,भादरियाराय, घंटियाली आदि 52 नामों से विभिन्न स्थानों पर पूजी जाती है,जिनमें एक नाम 'लटियाल' भी है ॥५॥)#सिणगारसुंदर पाट मन्दर आभमण्डल केशरी
आलोक ओजस ताप तेजस रूप राजस ईशरी ।
सद्काज आयुध धार चौकस सिंह पर असवारड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥६॥ब़ाजंत ब़ाजा घोर गाजा स्वार-सांझां आरती
डमडम्म डंकां नाद शंखां दिग-दिगंतां भारती ।
नारेळ चढ़ता माथ नमता पावड़ी दर पावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥७॥जन-आपदा दुख दूर करणी खेम करणी खेमदा
आई *असांजै नगर नाजै हीय *मांझै हेमदा ।
फलवृद्धिका फलदाय भक्तन पालिका परचावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥८॥
*असांजै=हमारे *मांझै=मेरे/भीतरमाता विलक्षण पूत-रक्षण गुण सुलक्षण दीजिये
अरदास बारम्बार अम्बा आस पूरण कीजिये ।
कवि 'नवल' भज्जे काज सज्जे लाज रखजे आवड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥९॥¤ छप्पय:
अवनी नगर उदार , प्राचि दिस द्वार फळोदी ।
दिव्य धाम दरबार , परम लटियाळ प्रमोदी ॥
प्रबल भक्त प्रतिपाल , सबल सिंह पीठ सवारी ॥
मरु लटियाळी मात , भव्य दरसण भवतारी ॥
सदकाज सगळा सिद्ध कर-आबद्ध कवि 'जोशी' कथै ।
भर अंक रखजै बद्ध माँ हरवक्त आसीसां मथै ॥¤ छंद- सारसी ¤ ¤ पाठ-फळ-
आ विनयगाथा विनत माथा पाठ साचा जो करै
सुख सांयती निधि नेह व्यापै सिद्धि साध्यां वापरै ।
कर दूर कंटक मेट संकट विकट जट सुलझावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥सद साल चहुवत्तर हजारी दोय आसू माह नै
सुद आठमी तिथि कवि ह्रिदै लटियाळ हरसी आयनै ।
गाथा रचाई आप माई कण्ठ कवि विरदावड़ी
लटियाळ माता मेट व्याधा टाळ बाधा मावड़ी ॥
-----@@@@----(इति श्री लटियाल विनयगाथा कवि नवल जोशी रचित दिवस

लटियाल अष्टक पाठ

लटियाल अष्टक
जय लटियालि आध्य - भवानी ,
हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े
चरण - कमल कॊ लियो आसरो
शरण तुम्हारी आन पड़े। 1

 जब जब भीड़ पड़े भक्तन पे,
भक्तन कें सब काज करे ।
जगजननी लटियाल भवानी
भव सागर से पार करे 2

सिह वाहिनी खड्ग धारिणी
भलहल भालो हाथ धरे ।
महिष विमर्दिनि - दांनव घातिनी ,
दुष्टन क़ा सहार करे 3

रत्न जड़ित सिर मुकुट विराजे
ग्रीवा पर कचमाल लसे ।
कानन कुंडल जलकत तेरे ,
दिव्य रूप मन माही बसे 4

ब्रह्मा विष्णु महेश शेष मुनि ,
शीश जूकावत सब तेरे ।
सिद्ध पीठ लटियाल धाम he
अर्चक कें सब काज करे 5

जो मांगे सो दया भाव से
भक्तन क़ा भंडार भरे ।
जय दुर्गे लटियाल भवानी ,
सभी भक्त जयकार करे 6

कष्ट पड़े भक्तन पे जब जब ,
सगुण होय माँ रूप धरे
अष्टभुजा लटियाल भवानी
पल मेँ संकट दूर करे 7

सचे मन से ध्यावै तुमकॊ
सकल मनोरथ सिद्ध करे ।
भोग मोक्ष कॊ देने वाली
साधक कें सब काज करे 8

लटियाल अष्टक क़ा पाठ करे , श्रधा भाव मन लेय
हरिकृष्ण विश्वास यह मंगल सब कर देय

त्रिकाल संध्या विधि

किसे कहते हैं त्रिकाल संध्या पूजन?

- इन तीन कालों में तीन प्रमुख देवों की पूजा की जामी है, उनके क्रम में ही होती है।

- हिंदू धर्म शास्त्रों में इसका विधान दिया गया है।

- त्रिकाल संध्या नियम पूरा करने वाले ब्राह्मण को पूजा के लिए तीनों समय वे ही कर्म करने होते हैं जो सुबह की पूजा के समय किया जाता है।

-प्रात:काल संध्या पूजन, मध्यान्ह संध्या पूजन व सायं संध्या पूजन विनियोग के मंत्र अलग हैं। सूर्य उपस्थान की मुद्रा बदल जाती है।

-प्रात:काल ब्रrारूपा गायत्री, मध्यान्ह में विष्णुरूपा गायत्री तथा सायंकाल शिवरूपा गायत्री का ध्यान किया जाता है।

-सायं सांध्य पूजन में दीप-अर्चना और आरती का भी विशेष महत्व बताया जाता है। आरती से पूजन में हुई भूल की पूर्ति हो जाती है।


क्यों किया जाता है संध्या पूजन?
हिंदू धर्म संस्कृति में मनुष्य के लिए कई नियम बनाए गए हैं। हर जाति और हर वर्ग के लिए कुछ नियम निश्चित किए गए हैं। ब्राह्मण समाज के लिए भी कई नियम बनाए गए हैं जो मुख्यत: पूजन, यज्ञादि कर्मो के लिए है। इसमें प्रमुख है संध्या पूजन। जो ब्रा ह्मण संध्या पूजन नहीं करता वह कर्म से ब्राह्मण नहीं माना जाता है। संध्या का शाब्दिक अर्थ संधि का समय है अर्थात जहां दिन का समापन और रात शुरू होती है, उसे संधिकाल कहा जाता है। ज्योतिष के अनुसार दिनमान को तीन भागों में बांटा गया है- प्रात:काल, मध्याह्न् और सायंकाल। संध्या पूजन के लिए प्रात:काल का समय सूर्योदय से छह घटी तक, मध्याह्न् 12 घटी तक तथा सायंकाल 20 घटी तक जाना जाता है। एक घटी में 24 मिनट होते हैं। प्रात:काल में तारों के रहते हुए, मध्याह्न् में जब सूर्य मध्य में हो तथा सायं सूर्यास्त के पहले संध्या करना चाहिए। संध्या पूजन क्यों? -नियमपूर्वक संध्या करने से पापरहित होकर ब्रrालोक की प्राप्ति होती है। -रात या दिन में जो विकर्म हो जाते हैं, वे त्रिकाल संध्या से नष्ट हो जाते हैं। -संध्या नहीं करने वाला मृत्यु के बाद कुत्ते की योनि में जाता है। -संध्या नहीं करने से पुण्यकर्म का फल नहीं मिलता। -समय पर की गई संध्या इच्छानुसार फल देती है। -घर में संध्या वंदन से एक, गो-स्थान में सौ, नदी किनारे लाख तथा शिव के समीप अनंत गुना फल मिलता है।



त्रिकाल संध्या
 तिलक धारण
भस्मादि-तिलक-विधि -
तिलकके बिना सत्कर्म सफल नही हो पाते । तिलक बैठकर लगाना चाहिये । अपने-अपने आचारके अनुसार मिट्टी, चन्दन और भस्म- इनमेसे किसीके द्वारा तिलक लगाना चाहिये । किंतु भगवानपर चढ़ानेसे बचे हुए चन्दनको ही लगाना चाहिये । अपने लिये न घ्रिसे । अँगूठेसे नीचेसे ऊपरकी ओर ऊर्ध्वपुण्ड्र लगाकर तब त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये । दोपहरसे पहले जल मिलाकर भस्म लगाना चाहिये । दोपहरके बाद जल न मिलावे । मध्याह्नमे चन्दन मिलाकर और शामको सूखा ही भस्म लगाना चाहिये । जलसे भी तिलक लगाया जाता है ।
अँगूठेसे ऊर्ध्वपुण्ड्र करनेके बाद मध्यमा और अनामिकासे बायी ओरसे प्रारम्भ कर दाहिनी ओर भस्म लगावे । इसके बाद अँगूठेसे दाहिनी ओरसे प्रारम्भ कर बायी ओर लगावे । इस प्रकार तीन रेखाएँ खिंच जाती है । तीनों अँगुलियोंके मध्यका स्थान रिक्त रखे । नेत्र रेखाओंकि सीमा है, अर्थात बाये नेत्रसे दाहिने नेत्रतक ही भस्मकी रेखाएँ हो । इससे अधिक लम्बी और छोटी होना भी हानिकर है । इस प्रकार रेखाओंकी लम्बाई छः अंगुल होती है । यह विधि ब्राह्मणोंके लिये है । क्षत्रियोंको चार अंगुल, वैश्योंको दो अंगुल और शूद्रोकों एक ही अंगुल लगाना चाहिये ।
(क) भस्मका अभिमन्त्रण -
भस्म लगानेसे पहले भस्मको अभिमन्त्रित कर लेना चाहिये । भस्मको बायी हथेलीपर रखकर जलादि मिलाकर निम्नलिखित मन्त्र पढ़े -
ॐ अग्निरिति भस्म । ॐ वायुरिति भस्म । ॐ जलमिति भस्म । ॐ स्थलमिति भस्म । ॐ व्योमेति भस्म । ॐ सर्वं ह वा इदं भस्म । ॐ मन एतानि चक्षूंषि भस्मानीति ।
(ख) भस्म लगानेका मन्त्र -
इसके बाद
'ॐ नमः शिवाय'
मन्त्र बोलते हुए ललाट, ग्रीवा, भुजाओं और ह्रदयमें भस्म लगाये । अथवा निम्नलिखित भिन्न-भिन मन्त्र बोलते हुए भिन्न-भिन्न स्थानोंमे भस्म लगाये -
ॐ त्र्यायुषं जमदग्नोरिति ललाटे । ॐ कश्यपस्य त्र्यायुषमिति ग्रीवायाम् । ॐ यद्देवेषु त्र्यायुषमिति भुजायाम् । ॐ तन्नो अस्तु त्र्यायुषमित ह्रदये ।

पवित्रीधारण
स्नान, संध्योपासन, पूजन, जप, होम, वेदाध्ययन और पितृकर्ममें पवित्री धारण करना आवश्यक है । यह कुशासे बनायी जाती है । सोनेकी अँगूठी भी पवित्रीके काममे आती है । इसकी महत्ता कुशकी पवित्रीसे अधिक है । पवित्री पहनकर आचमन करनेमात्रसे कुश जूठा नही होता । अतः आचमनके पश्चात इसका त्याग भी नही होता । हाँ, पवित्रा पहनकर यदि भोजन कर लिया जाय, तो वह जूठी हो जाती है और उसका त्याग अपेक्षित है । दो कुशोंसे बनायी हुई पवित्री हाथकी अनामिकाके मूल भागमें तथा तीन कुशोंसे बनायी गयी पवित्री बायी अनामिकाके मूलमें
'ॐ भुर्भुवः स्वः'
मन्त्र पढ़कर धारण करे । दोनोपवित्रियाँ देवकर्म, ऋषिकर्म तथा पितृकर्ममें उपयोगी है ।
इन दोनो पवित्रियोंको प्रतिदिन बदलना आवश्यक नही है । स्नान, संध्योपासनादिके पश्चात यदि इन्हे पवित्र स्थानमे रख दिया जाय तो दुसरे कामोंमे बार-बार धारण किया जा सकता है । जूठी हो या श्राद्ध किया जाय, तब इन्हे त्याग देना चाहिये । उस समय इनकी गाँठोका खोलना आवश्यक हो जाता है । यज्ञोपवीतकी भाँति इन्हे भी शुद्ध स्थानमें छोडना चाहिये । जलमें छोड़ दे या शुद्ध भूमिको खोदकर 'ॐ' कहकर मिट्टिसे दबा दे ।
पवित्रीके अतिरिक्त अन्य कुशोंका जो किसी कर्ममे आ चुके है, अन्य कर्मोंमे प्रयोग निषिद्ध है । इसलिये प्रतिदिन नया-नया कुश उखाड़कर उनका उपयोग करे । यदि ऐसा सम्भव न हो तो अमावास्याको कुशोत्पाटन करे । अमावास्याका उखाड़ा कुश एक मासतक चल सकता है । यदि भाद्रमासकी अमावास्याको कुश उखाड़ा जाय तो वह एक वर्षतक चलता है ।
(क) कुशोत्पाटन विधि -
स्नानके बाद सफेद वस्त्र पहनकर प्रातःकाल कुशको उखाड़ना चाहिये । उखाड़ते समय मुँह उत्तरकी ओर या पूरबकी ओर रहे । पहले 'ॐ'कहकर कुशका स्पर्श करे और फिर निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर प्रार्थना कएर -
विरञ्चिना सहूत्पन्न परमेष्ठिनिसर्जन ।
नुद सर्वाणि पापानि दर्भ ! स्वस्तिकरो भव ॥
कुशको एक ही झटकेसे उखाड़ना होता है । अतः पहले खन्ती या खुरपी आदिसे उसकी जड़को ढीला कर ले, फिर पितृतीर्थ चित्र-पृ०सं-४४ से 'हुँ फट्' कहक र उखाड़ ले ।
(ख) ग्रहण करने योग्य कुश -
जिसका अग्रभाग कटा न हो, जो जला न हो, जो मार्गमें या गंदी जगहपर न हो और गर्भित न हो, वह कुश ग्रहण करने योग्य है ।
हाथोमें तीर्थ
शास्त्रोंमे दोनो हाथोमें कुछ देवादितीर्थोंके स्थान बताये गये है । चारो अँगुलियोके अग्रभागमें देवतीर्थ, तर्जनी अँगुलीके मूलभागमे 'पितृतीर्थ' कनिष्ठिकाके मूलभागमें 'प्रजापतितीर्थ' और अँगूठेके मूलभागमें 'ब्रह्मतीर्थ' माना जाता है । इसी तरह दाहिने हाथके बीचमे 'अग्नितीर्थ' और बाये हाथके बीचमे 'सोमतीर्थ' एवं अँगुलियोंके सभी पोरों और संधियोंमे 'ऋषितीर्थ' है । देवताओंको तर्पणमें जलाञ्जलि 'देवतीर्थ' से, ऋषियोंको प्रजापति (काय) तीर्थसे और पितरोंको 'पितृतीर्थ' से देनेका विधान है ।
जप-विधि
जप तीन प्रकारका होता है -
वाचिक, उपांशु और मानसिक । वाचिक जप धीरे-धीरे बोलकर होता है । उपांशु-जप इस प्रकार किया जाता है, जिससे दूसरा न सुन सके । मानसिक जपमें जीभ और ओष्ठ नही हिलते । तीनों पहलेकी अपेक्षा दूसरा और दूसरेकी अपेक्षा तीसरा प्रकार श्रेष्ठ है ।
प्रातःकाल दोनो हाथोंको उत्तान कर, सायंकाल नीचेकी ओर करके और मध्याह्नमे सीधा करके जप करना चाहिये । प्रातःकाल हाथको नाभिके पास, मध्याह्नमे ह्रदयके समीप और सायंकाल मुँहके समानान्तरमे रखे । जपकी गणना चन्दन, अक्षत, पुष्प, धान्य, हाथके पोर और मिट्टीसे न करे । जपकी गणना के लिये लाख, कुश, सिन्दूर और सूखे गोबरको मिलाकर गोलियाँ बना ले । जप करते समय दाहिने हाथको जपमालीमें डाल ले अथवा कपड़ेसे ढक लेना आवश्यक होता है, किंतु कपड़ा गीला न हो । यदि सूखा वस्त्र न मिल सके तो सात बार उसे हवामें फटकार ले तो वह सूखा-जैसा मान लिया जाता है । जपके लिये मालाके अनामिका अँगुलीपर रखकर अँगूठेसे स्पर्श करते हुए मध्यमा अँगुलीसे फेरना चाहिये । सुमेरुका उल्लङ्घन न करे । तर्जनी न लगाए । सुमेरुके पाससे मालाको घुमाकर दुसरी बार जपे । जप करते समय हिलना, डोलना, बोलना निषिद्ध है । यदि जप करते समय बोल दिया जाय तो भगवानका स्मरण कर फिरसे जप करना चाहिये ।
यदि माला गिर जाय तो एक सौ आठ बार जप करे । यदि माला पैरपर गिर जाय तो इसे धोकर दुगुना जप करे ।
(क) स्थान-भेदसे जपकी श्रेष्ठताका तारतम्य -
घरमें जप करनेसे के गुना, गोशालामे सौ गुना, पुण्यमय वन या वाटिका तथा तीर्थमे हजार गुना, पर्वतपर दस हजार गुना, नदी-तटपर लाख गुना, देवालयमें करोड़ गुना तथा शिवलिङ्गके निकट अनन्त गुना पुण्य प्राप्त होता है -
गृहे चैकगुणः प्रोक्तः गोष्ठे शतगुणः स्मृतः ।
पुण्यारण्ये तथा तीर्थे सहस्त्रगुणमुच्यते ॥
अयुतः पर्वते पुण्यं नद्यां लक्षगुणो जपः ।
कोटिर्देवलये प्राप्ते अनन्तं शिवसंनिधौ ॥
(ख) माला-वन्दना - निम्नलिखित मन्त्रसे मालाकी वन्दना करे -
ॐ मां माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणी ।
चतुर्वर्गस्त्वयि नयस्तस्तस्मान्मे सिद्धिदा भव ॥
ॐ अविघ्नं कुरु माले त्वं गृह्नामि दक्षिणे करे ।
जपकाले च सिद्ध्यर्थं प्रसीद मम सिद्ध्ये ॥
देवमन्त्रकी करमाला
अङ्गुल्यग्रे च यज्जप्तं यज्जप्तं मेरुलङ्घनात् ।
पर्वसन्धिषु यज्जप्तं तत्सर्वं निष्फलं भवेत ॥
अँगुलियोंके अग्रभाग तथा पर्वकी रेखाओंपर ओर सुमेरुका उल्लङ्घन कर किया हुआ जप निष्फल होता है ।
यस्मिन् स्थाने जपं कुर्याद्धरेच्छक्रो न तत्फलम् ।
तन्मृदा लक्ष्म कुर्वीत ललाटे तिलकाकृतिम् ।
जिस स्थानपर जप किया जाता है, उस स्थानकी मृत्तिका जपके अनन्तर मस्तकपर लगाये अन्यथा उस जपका फल इन्द्र ले लेते है ।
ऊपरके चित्र-सं० १ के अनुसार अङ्क १ से आरम्भ कर १० अङ्कतक अँगूठेसे जप करनेसे एक करमाला होती है । इसी प्रकार दस करमाला जप करके चित्र संख्या २ के अनुसार १ अङ्कसे आरम्भ करके ८ अङ्कतक जप करनेसे १०८ संख्याकी माला होती है ।
अनामिकाके मध्यवाले पर्वसे आरम्भकर क्रमशः पाँचों अँगुलियोंके दसों पर्वपर (अँगूठेको घुमावे ) और मध्यमा अङ्गुलेके मूलमें जो दो पर्व है, उन्हे मेरु मानकर उसका उल्लङ्घन न करे । यह गायत्रीकल्पके अनुसार करमाला है, जिसका वर्णन ऊपरके चित्रमें भी दिखाया गया है ।
आरभ्यानामिकामध्यं पर्वाण्युक्तान्यनुक्रमात् ।
तर्जनीमूलपर्यन्तं जपेद्‌ दशसु पर्वसु ॥
मध्यमाङ्गुलिमूले तु यत्पर्व द्वितयं भवेत् ।
तद्‌ वै मेरुं विजानीयाज्जपे तं नातिलङ्घयेत ॥
संध्याका समय एवं आवश्यकता
संध्याका समय - सूर्योदयसे पूर्व जब कि आकाशमें तारे भरे हुए हो, उस समयकी संध्या उत्तम मानी गयी है । ताराओंके छिपनेसे सूर्योदयतक मध्यम और सूर्योअदयके बादकी संध्या अधम होती है ।
सायंकालकी संध्या सूर्यके रहते कर ली जाय तो उत्तम, सूर्यास्तके बाद और तारोंके निकलनेके पूर्व मध्यम और तारा निकलनेके बाद अधम मानी गयी है ।
संध्याकी आवश्यकता
नियमपूर्वक जो लोग प्रतिदिन संध्या करते है, वे पापरहित होकर सनातन ब्रह्मलोकको प्राप्त होते है -
संध्यामुपासते ये तु सततं संशितव्रताः ।
विधूतपापास्ते यान्ति ब्रह्मलोकं सनातनम् ॥
(अत्रि)
इस पृथ्वीपर जितने भी स्वकर्मरहित द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) है, उनको पवित्र करनेके लिये ब्रह्माने संध्याकी उत्पत्ति की है । रात या दिनमें जो भी अज्ञानवश विकर्म हो जायँ, वे त्रिकाल-संध्या करनेसे नष्ट हो जाते है-
यावन्तोऽस्यां पृथिव्यां हि विकर्मस्थातु वै द्विजाः ।
तेषां वै पावनार्थाय संधय सृष्ट स्वयम्भुवा ॥
निशायां वा दिवा वापि यदज्ञानकृतं भवेत् ।
त्रैकाल्यसंध्याकरणात् तत्सर्वं विप्रणश्यति ॥

संध्या न करनेसे दोष
जिसने संध्याका ज्ञान नही किया, जिसने संध्याकी उपासना नही की, वह (द्विज) जीवित रहते शूद्र-सम रहता है और मृत्युके बाद कुत्ते आदिकी योनिको प्राप्त करता है-
संध्या येन न विज्ञाता संध्या येनानुपासिता ।
जीवमानो भवेच्छुद्रो मृतः श्वा चाभिजायते ।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि संध्या नही करे, तो वे अपवित्र है और उन्हे किसी पुण्यकर्मके करनेका फल प्राप्त नही होता ।
संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यमनर्हः सर्वकर्म्सु ।
यदन्यत् कुरुते कर्म न तस्य फलभाग्भवेत् ॥

संध्या-कालकी व्याख्या
सूर्य और तारोंसे रहित दिन-रातकी संधिको तत्त्वदर्शी मुनियोंने संध्याकाल माना है-
अहोरात्रस्य या संधिः सूर्यनक्षत्रवर्जिता ।
सा तु संध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥

संध्यास्तुति
ब्राह्मणरूपी वृक्षका मूल संध्या है, चारो वेद चार शाखाएँ है, धर्म और कर्म पत्ते है । अतः मूलकी रक्षा यत्नसे करनी चाहिये । मूलके छिन्न हो जानेपर वृक्ष और शाखा कुछ भी नही रह सकते है-
विप्रो वृक्षो मूलकान्यत्र संध्या वेदाः शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् ।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं छिन्ने मूले नैव वृक्षो न शाखा ॥

समयपर की गयी संध्या इच्छानुसार फल देती है और बिना समयकी की गयी संध्या वन्ध्या स्त्रीके समान होती है -
स्वकाले सेविता संध्या नित्यं कामदुघा भवेत् ।
अकाले सेविता सा च संध्या वन्ध्या वधूरिव ॥
(मित्रकल्प)
प्रातःकालमें तारोके रहते हुए, मध्याह्नकालमे जब सूर्य आकाशमें मध्यमें हो, सायंकालमें सूर्यास्तके पहले ही इस तरह तीन प्रकारकी संध्या करनी चाहिये -
प्रातः संध्या सनक्षत्रां मध्याह्ने मध्यभास्कराम् ॥
ससूर्या पश्चिमां संध्यां तिस्त्रः संध्या उपासते ।
सायंकालमें पश्चिमकी तरफ मुख करके जबतक तारोंका उदय न हो और प्रातःकालमें पूर्वकी ओर मुख करके जबतक सूर्यका दर्शन न हो, तबतक जप करता रहे-
जपन्नासीत सावित्रीम्प्रत्यगातारकोदयात् ॥
संध्या प्राक् प्रातरेवं हि तिष्ठेदासूर्यदर्शनात् ।
गृहस्थ तथा ब्रह्मचारी गायत्रीके आदिमे 'ॐ' का उच्चारण करके जप करे, और अन्तमें'ॐ' का उच्चारण न करे, क्योंकि ऐसा करनेसे सिद्धि नही होती है-
गृहस्थो ब्रह्मचारी च प्रणवाद्यामिमां जपेत् ।
अन्ते यः प्रणवं कुर्यान्नासौ सिद्धिमवाप्नुयात् ॥

जपके आदिमे चौंसथ कलायुक्त विद्याओं तथा सम्पूर्ण ऐश्वर्योंका सिद्धिदायक 'गायत्री-ह्रदय' का तथा अन्तमें 'गायत्री-कवच' का पाठ करे । (यह नित्य संध्यामें आवश्यक नही है, करे तो अच्छा है)-
चतुष्षष्टिकला विद्या सकलैश्वर्यसिद्धिदा ।
जपारम्बे च ह्रदयं जपान्ते कवचं पठेत् ॥
घरमें संध्या-वन्दन करनेसे एक, गोस्थानमें सौ, नदी-किनारे लाख तथा शिवके समीमपें अनन्त गुना फल होता है-
गृहेषु तत्समा संध्या गोष्ठे शतगुना स्मृता ।
नद्यां सह्तगुना प्रोक्ता अनन्ता शिवसंनिधौ ॥

पैर धोनेसे, पीनेसे और संध्या करनेसे बचा हुआ जल श्वानके मूत्रके तुल्य हो जाता है, उसे पीनेपर चान्द्रायण-व्रत करनेसे मनुष्य पवित्र होता है । इसलिये बचे हुए जलको फेंक दे-
पादशेषं पीतशेषं संध्याशेषं तथैव च ।
शुनो मूत्रसमं तोयं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥
संध्याके लिये पात्र आदि
१. लोटा प्रधान जलपात्र - १
२. घंटी और संध्याका विशेष जलपात्र - १
३. पात्र-चन्दन-पुष्पादिके लिये
४. पञ्चपात्र-२
५. आचमनी-२
६. अर्घा-१
७. जल गिरानेके लिये तामड़ी (छोटी थाली) - १
८. आसन
संध्योपासन-विधि
संध्योपासन द्विजमात्रके लिये बहुत ही आवश्यक कर्म है । इसके बिना पूजा आदि कार्य करनेकी योग्यता नही आती । अतः द्विजमात्रके लिये संध्या करना आवश्यक है ।
स्नानके बाद दो वस्त्र धारणकर पूर्व, ईशानकोण या उत्तरकि ओर मुँह कर आसनपर बैठ जाय । आसनकी ग्रन्थि उत्तर-दक्षिणकी ओर हो । तुलसी, रुद्राक्ष आदिकि माला धारण कर ले । दोनों अनामिकाओंमे पवित्री धारण कर ले । गायत्री मन्त्र पढ़्कर शिखा बाँधे तथा तिलक लगा ले और आचमन करे -
आचमन - 'ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः' -
इन तीन मन्त्रोंसे तीन बार आचमन करके 'ॐ ह्रषीकेशाय नमः' इस मन्त्रको बोलकर हाथ धो ले ।
पहले विनियोग पढ़ ले, तब मार्जन करे (जल छिड़के) ।
मार्जन-विनियोग- मन्त्र - 'ॐ अपवित्रः पवित्रो वेत्यस्य वामदेव ऋषिः, विष्णुर्देवता, गायत्रीछन्दः ह्रदि पवित्रकरणे विनियोगः ।
इस प्रकार विनियोग पढ़कर जल छोड़े तथा निम्नलिखित मन्त्रसे मार्जन करे (शरीर एवं सामग्रीपर जल छिड़के)
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥
तदनन्तर आगे लिखा विनियोग पढ़े-
'ॐ पृथ्वीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः, सुतल छन्दः, कूर्मो देवता आसनपवित्रकरणे विनियोगः ।'
फिर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर आसनपर जल छिड़के-
ॐ पृथ्वि ! त्वया धृता लोका देवि । त्वं विष्णुना धृता ।
त्वं च धार मां देवि ! पवित्रं कुरु चासनम् ॥
संध्याका संकल्प - इसके बाद हाथमें कुश और जल लेकर संध्याका संकल्प पढ़कर जल गिरा दे -
'ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य.....उपात्तदुरितक्षयपूर्वकश्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं संध्योपासनं करिष्ये ।
आचमन - इसके लिये निम्नलिखित विनियोग पढ़े-
ॐ ऋतं चेति माधुच्छन्दसोऽघमर्षण ऋषुरनुष्टुप् छन्दो भाववृत्तं दैवतमपामुपस्पर्शने विनियोगः । फिर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर आचमन करे -
ॐ ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत । ततः समुद्रो अर्णवः । समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवी चान्तरिक्षमथो स्वः ।
तदनन्तर दाये हाथमे जल लेकर बाये हाथसे ढककर 'ॐ' के साथ तीन बार गायत्रीमन्त्र पढ़कर अपनी रक्षाके लिये अपने चारों ओर जलकी धारा दे । फिर प्राणायाम करे ।
प्राणायामका विनियोग - प्राणायाम करनेके पूर्व उसका विनियोग इस प्रकार पढ़े-
'ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिर्दैवी गायत्री छन्दः अग्निः परमात्मा देवता शुक्लो वर्णः सर्वकर्मारम्भे विनियोगः ।'
ॐ सप्तव्याह्रतीनां विश्वामित्रजमदग्निभरद्वाजगौतमात्रिवसिष्ठ-कश्यपा ऋषयो गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपङिक्तत्रिष्टुब्जगत्यश्छ्न्दांस्य-ग्निवाय्वादित्यबृहस्पतिवरुणेन्द्रविष्णवो देवता अनादिश्टप्रायश्चित्ते प्राणायामे विनियोगः ।
ॐ तत्सवितुरिति विश्वामित्रऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता प्राणायामे विनियोगः ।
ॐ आपो ज्योतिरिति शिरसः प्रजापतिऋषिर्यजुश्छन्दो ब्रह्माग्निवायुसूर्या देवताः प्राणायामे विनियोगः ।
(क) प्राणायामके मन्त्र - फिर आँखे बंद कर नीचे लिए मन्त्रोंका प्रत्येक प्राणायाममे तीन-तीन बार (अथवा पहले एक बारसे ही प्रारम्भ करे, धीरे-धीरे तीन-तीन बारका अभ्यास बढ़ावे) पाठ करे ।
ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् । ॐ तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि ।धियो यो नः प्रचोदयात् । ॐ आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भुर्भुवः स्वः स्वरोम् । (तै० आ० प्र० १० अ० २७)
(ख) प्राणायामकी विधि - प्राणायामके तीन भेद होते है - १. पूरक, २.कुम्भक और ३. रेचक ।
१. - अँगूठेसे नाकके दाहिने छिद्रको दबाकर बायें छिद्रसे श्वासको धीरे-धीरे खींचनेको 'पूरक प्राणायाम' कहते है । पूरक प्राणायाम करते समय उपर्युक्त मन्त्रोंका मनसे उच्चारण करते हुए नाभिदेशमें नीलकमलके दलके समान नीलवर्ण चतुर्भुज भगवान विष्णुका ध्यान करे ।
२- जब साँस खींचना रुक जाय, तब अनामिका और कनिष्ठिका अँगुलीसे नाकके बाये छिद्रको भी दबा दे । मन्त्र जपता रहे । यह 'कुम्भक प्राणायाम' हुआ । इस अवसरपर ह्रदयमें कमलपर विराजमान लाल वर्णवाले चतुर्मुख ब्रह्माका ध्यान करे ।
३- अँगूठेको हटाकर दाहिने छिद्रसे श्वासको धीरे-धीरे छोड़नेको 'रेचक प्राणायाम' कहते है । इस समय ललाटमे श्वेतवर्ण शंकरका ध्यान करना चाहिये । मनसे मन्त्र जपता रहे ।
(ग) प्राणायामके बाद आचमन - (प्रातःकालका विनियोग और मन्त्र) प्रातःकाल नीचे लिखा विनियोग पढ़कर पृथ्वीपर जल छोड़ दे -
सूर्यश्च नेति नारायण ऋषिः अनुष्टुप‌छन्दः सूर्यो देवता अपामुपस्पर्शेन विनियोगः ।
पश्चात नीचे लिखे मन्त्रको पढ़कर आचमन करे -
ॐ सूर्य्श्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यद्रात्र्या पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्‌भ्यामुदरेण शिश्न अरात्रिस्तदवलुम्पतु । यत्किञ्च दुरितं मयि इदमहपापोऽमृतयोनौ सूर्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ॥
मार्जन - इसके बाद मार्जनका निम्नलिखित विनियोग पढ़कर बाये हाथमे जल लेकर कुशोंसे या दाहिने हाथकी तीन अँगुलियोंसे १ से ७ तक मन्त्रोंको बोलकर सिरपर जल छिड़के । ८वे मन्त्रसे पृथ्वीपर तथा ९ वेसे फिर सिरपर जल छिड़के ।
ॐ आपो हि ष्ठेत्यादित्र्यृचस्य सिन्धुद्वीप ऋषिर्गायत्री छन्दः आपो देवता मार्जने विनियोगः ।
१. ॐ आपो हि ष्ठा मयोभुवः ।
२. ॐ ता न ऊर्जे दधातन ।
३. ॐ महे रणाय चक्षसे ।
४. ॐ यो वः शिवतमो रसः ।
५. ॐ तस्य भाजयतेह नः ।
६. ॐ उशतीरिव मातरः ।
७. ॐ तस्मा अरं गमम वः ।
८. ॐ यस्य क्षयाय जिन्वथ ।
९. ॐ आपो जनयथा च नः ।
मस्तकपर जल छिड़कनेके विनियोग और मन्त्र -
निम्नलिखित विनियोग पढ़कर बाये हाथमे जल लेकर दाहिने हाथसे ढक ले और निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर सिरपर छिड़के ।
विनियोग - द्रुपदादिवेत्यस्य कोकिलो राजपुत्र ऋषिरनुष्टुप छन्दः आपो देवताः शिरस्सेके विनियोगः ।
मन्त्र - ॐ द्रुपदादिव मुमुचानः स्विन्नः स्नातो मलादिव ।
पूतं पवित्रेणेवाज्यमापः शुन्धन्तु मैनश ॥

अघमर्षण और आचमनके विनियोग और मन्त्र - नीचे लिखा विनियोग पढ़कर दाहिने हाथमे जल लेकर उसे नाकसे लगाकर मन्त्र पढ़े और ध्यान करे कि 'समस्त पाप दाहिने नाकसे निकलकर हाथके जलमें आ गये है । फिर उस जलको बिना देखे बायी ओर फेंक दे ।
अघमर्षणसूक्तस्याघमर्षण ऋषिरनुष्टप् छन्दो भाववृत्तो देवता अघमर्षणे विनियोगः ।
मन्त्र - ॐ ऋतञ्च सत्यं चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत । ततो रात्र्यजायत । ततः समुद्रो अर्णवः । समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापुर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ॥

पुनः निम्नलिखित विनियोग करे -
अन्तश्चरसीति तिरश्चीन ऋषिरनुष्टुप् छन्दः आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः ।
फिर इस मन्त्रसे आचमन करे -
ॐ अन्तश्चरसि भूतेषु गुहायां विश्वतोमुखः ।
त्वं यज्ञस्त्वं वषट्कार आपो ज्योती रसोऽमृतम् ॥

सूर्यार्घ्य-विधि
इसके बाद निम्नलिखित विनियोगको पढ़कर अञ्जलिसे अँगूठेको अलग हटाकर गायत्री मन्त्रसे सूर्य भगवानको जलसे अर्घ्य दे । अर्घ्यमे चन्दन और फूल मिला ले । सबेरे और दोपहरको एक एड़ी उठाये हुए खड़े होकर अर्घ्य देना चाहिये । सबेरे कुछ झुककर खड़ा होवे और दोपहरको सीधे खड़ा होकर और शामको बैठकर । सबेरे और शामको तीन-तीन अञ्जलि दे और दोपहरको एक अञ्जलि । सुबह और दोपहरको जलमें अञ्जलि उछाले और शामको धोकर स्वच्छ किये स्थलपर धीरेसे अञ्जलि दे । ऐसा नदीतटपर करे । अन्य जगहोमे पवित्र स्थलपर अर्घ्य दे, जहाँ पैर न लगे । अच्छा है कि बर्तनमें अर्घ्य देकर उसे वृक्षके मूलमें डाल दिया जाय ।
सूर्यार्घ्यका विनियोग - सूर्यको अर्घ्य देनेके पूर्व निम्नलिखित विनियोग पढ़े -
(क) 'ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दः परमात्मा देवता अर्घ्यदाने विनियोगः ।'
(ख) ॐ भूर्भुवः स्वरिति महाव्याह्रतीनां परमेष्ठी प्रजापतिऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांस्यग्निवायुसूर्यादेवताः अर्घ्यदाने विनियोगः ।'
(ग) ॐ तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्र ऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता सूर्यार्घ्यदाने विनियोगः ।'
इस प्रकार विनियोग कर नीचे लिखा मन्त्र पढ़कर अर्घ्य दे -
'ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयात् ।'
इस मन्त्रको पढ़कर
'ब्रह्मस्वरूपिणे सूर्यनारायणाय नमः'
कहकर अर्घ्य दे ।
विशेष - यदि समय (प्रातः सूर्योदयसे तथा सूर्यास्तसे तीन घड़ी बाद) का अतिक्रमण हो जाय तो प्रायश्चित्तस्वरूप नीचे लिखे मन्त्रसे एक अर्घ्य पहले देकर तब उक्त अर्घ्य दे -
ॐ भूर्भुव स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमाहि । धियो यो नः प्रचोदयात् । ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ।
उपस्थान - सूर्यके उपस्थानके लिये प्रथम नीचे लिखे विनियोगोंको पढ़े-
(क) उद्वयमित्यस्य प्रस्कण्व ऋशिरनुष्टुप् छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ।
(ख) उदु त्यमित्यस्य प्रस्कण्व ऋषिर्निचृद्‌गायत्री छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ।
(ग) चित्रमित्यस्य कौत्स ऋषिस्त्रिष्टुप् छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ।
(घ) तच्चक्षुरित्यस्य दध्यङ्डथर्वण ऋषिरक्षरातीतपुरउष्णिक्छन्दः सूर्यो देवता सूर्योपस्थाने विनियोगः ।
इसके बाद प्रातः चित्रानुसार खड़े होकर तथा दोपहरमें दोनो हाथोंको उठाकर और सायंकाल बैठकर हाथ जोड़कर नीचे लिखे मन्त्रोको पढ़ते हुए सूर्योपस्थान करे ।
सूर्योपस्थानके मन्त्र -
(क) ॐ उद्वयं तमसस्परि स्वः पश्यन्त उत्तरम् ।
देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ॥

(ख) ॐ उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।
दृशे विश्वाय सूर्यम्
(ग) ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः ।
आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥

(घ) ॐ तच्चक्षुर्देवहित पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत् । पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत श्रृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ।

गायत्री-जपका विधान
षडङ्गन्यास - गायत्री मन्त्रके जपके पूर्व षडङ्गन्यास करनेका विधान है । अतः आगे लिखे एक-एक मन्त्रको बोलते हुए चित्रके अनुसार उन-उन अङ्गोका स्पर्श करे -
१. ॐ ह्रदयाय नमः
(दाहिने हाथकी पाँचो अँगुलियोंसे ह्रदयका स्पर्श करे ।)
२. ॐ भूः शिरसे स्वाहा
(मस्तकका स्पर्श करे) ।
३. ॐ भुवः शिखायै वषट्
(शिखाका अँगूठेसे स्पर्श करे ) ।
४. ॐ स्वः कवचाय हुम्
(दाहिने हाथकी अँगुलियोंसे बाये कंधेका और बाये हाथकी अँगुलियोंसे दाये कंधेका स्पर्श करे) ।
५. ॐ भूर्भुवः स्वः नेत्राभ्यां वौषट्
(नेत्रोंका स्पर्श करे) ।
६. ॐ भुर्भुवः स्वः अस्त्राय फट्
(बाये हाथकी हथेलीपर दाये हाथको सिरसे घुमाकर मध्यमा और तर्जनीसे ताली बजाये) ।
गायत्री ध्यान
प्रातःकाल ब्रह्मरूपा गायत्रीमाताका ध्यान-
ॐ बालां विद्यां तु गायत्रीं लोहितां चतुराननाम् ।
रक्ताम्बरद्वयोपेतामक्षसूत्रकरां तथा ॥
कमण्डलुधरां देवी हंसवाहनसंस्थिताम् ।
ब्रह्माणी ब्रह्मदैवत्यां ब्रह्मलोकनिवासिनीम् ॥
मन्त्रेनावाहयेद्देवीमायान्ती सूर्यमण्डलात् ।
'भगवती गायत्रीका मुख्य मन्त्रके द्वारा सूर्यमण्डलसे आते हुए इस प्रकार ध्यान करना चाहिये कि उनकी किशोरावस्था है और वे ज्ञानस्वरुपिणी है । वे रक्तवर्णा एवं चतुर्मुखी है । उनके उत्तरी तथा मुख्य परिधान दोनो ही रक्तवर्णके है । उनके हाथमें रुद्राक्षकी माला है । हाथमे कमण्डलु धारण किये वे हंसपर विराजमान है । वे सरस्वती-स्वरूपा है, ब्रह्मलोकमें निवास करती है और ब्रह्माजी उनके पतिदेवता है।'
गायत्रीका आवाहन - इसके बाद गायत्रीमाताके आवाहनके लिये निम्नलिखित विनियोग करे -
तेजोऽसीति धामनामासीत्यस्य च परमेष्ठी प्रजापतिऋषिर्यजुस्त्रिष्टुबुष्णिहौ छन्दसी आज्यं देवता गायत्र्यावाहने विनियोगः ।
पश्चात् निम्नलिखित मन्त्रसे गायत्रीका आवाहन करे-
'ॐ तेजोऽसि शुक्रमस्यमृतमसि । धामनामासि प्रियं देवानामना धृष्टं देवयजनमसि।'
गायत्रीदेवीका उपस्थान (प्रणाम) - आवाहन करने पर गायत्री देवी आगयी है, ऐसा मानकर निम्नलिखित विनियोग पढ़कर आगेके मन्त्रसे उनको प्रणाम करे-
गायत्र्यसीति विवस्वान् ऋषिः स्वराण्महापङ्क्तिश्छन्दः परमात्मा देवता गायत्र्युपस्थाने विनियोगः ।
ॐ गायत्र्यस्येकपदी द्विपदी त्रिपदी चतुष्पद्यपदसि । न हि पद्यसे नमस्ते तुरीयाय दर्शताय पदाय परोरजसेऽसावदो मा प्रापत् ।

(गायत्री-उपस्थानके बाद गायत्री-शापविमोचनका तथा गायत्री-मन्त्र-जपसे पूर्व चौबीस मुद्राओंके करनेका भी विधान है, परंतु नित्य-संध्यावन्दनमे अनिवार्य न होनेपर भी इन्हे जो विशेषरूपसे करनेके इच्छुक है, उनके लिये यहाँपर दिया जा रहा है ।)
गायत्री-शापविमोचन
ब्रह्मा, वसिष्ठ, विश्वामित्र और शुक्रके द्वारा गायत्री-मन्त्र शप्त है । अतः शाप-निवृत्तिके लिये शाप-विमोचन करना चाहिये ।
१. ब्रह्म-शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीब्रह्मशापविमोचनमन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिर्भुक्तिमुक्तिप्रदा ब्रह्मशापविमोचनी गायत्री शक्तिर्देवता गायत्री छन्दः ब्रह्मशापविमोचने विनियोगः ।
मन्त्र -
ॐ गायत्री ब्रह्मेत्युपासीत यद्रूपं ब्रह्मविदो विदुः ।
तां पश्यन्ति धीराः सुमनसो वाचमग्रतः ॥
ॐ वेदान्तनाथाय विद्महे हिरण्यगर्भाय धीमहि तन्नो ब्रह्म प्रचोदयात् । ॐ देवि! गायत्रि ! त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव ।
२. वसिष्ठ -शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीवसिष्ठ-शापविमोचनमन्त्रस्य निग्रहानुग्रहकर्ता वसिष्ठ ऋषिर्वसिष्ठानुगृहीता गायत्री शक्तिर्देवता विश्वोद्भवा गायत्री छन्दः वसिष्ठशापविमोचनार्थं जपे विनियोगः ।
मन्त्रः-
ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः ।
आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम् ॥
योनिमुद्रा दिखाकर तीन बार गायत्री जपे ।
ॐ देवि ! गायत्रि ! त्वं वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव ।
३. विश्वामित्र-शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीविश्वामित्रशापविमोचनमन्त्रस्य नूतनसृष्टिकर्ता विश्वामित्रऋषिर्विश्वामित्रानुगृहीता गायत्री शक्तिर्देवता वाग्देहा गायत्री छन्दः विश्वामित्रशापविमोचनार्थं जपे विनियोगः ।
मन्त्र-
ॐ गायत्री भजाम्यग्निमुखी विश्वगर्भां यदुद्भवाः ।
देवाश्चक्रिरे विश्वसृष्टिं ता कल्याणीमिष्टकरी प्रपद्ये ॥
ॐ देवि ! गायत्रि ! त्वं विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव ।
४. शुक्र-शापविमोचन - विनियोग - ॐ अस्य श्रीशुक्रशापविमोचनमन्त्रस्य श्रीशुकऋषिः अनुष्टुप‌छन्दः देवी गायत्री देवता शुक्रशापविमोचनार्थं जपे विनियोगः ।
मन्त्र -
ॐ सोऽहमर्कमयं ज्योतिरात्मज्योतिरहं शिवः ।
आत्मज्योतिरहं शुक्रः सर्वज्योतीरसोऽस्म्यहम् ॥
ॐ देवि ! गायत्रि ! त्वं शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ।
प्रार्थना -
ॐ अहो देवि महादेवि संध्ये विद्ये सरस्वति ।
अजरे अमरे चैव ब्रह्मयोनिर्नमोऽस्तु ते ॥
ॐ देवि गायत्रि त्वं ब्रह्मशापाद्विमुक्ता भव, वसिष्ठशापाद्विमुक्ता भव, विश्वामित्रशापाद्विमुक्ता भव, शुक्रशापाद्विमुक्ता भव ।
जपके पूर्वकी चौबीस मुद्राएँ
सुमुखं सम्पुटं चैव विततं विस्तृतं तथा ।
द्विमुखं त्रिमुखं चैव चतुष्पञ्चमुखं तथा ॥
षण्मुखाऽधोमुखं चैव व्यापकाञ्जलिकं तथा ।
शकटं यमपाशं च ग्रथितं चोन्मुखोन्मुखम् ॥
प्रलम्बं मुष्टिकं चैव मत्स्यः कूर्मो वराहकम् ।
सिंहाक्रान्तं महाक्रान्तं मुद्गरं पल्लवं तथा ॥
एता मुद्रश्चतुर्विंशज्जपादौ परिकीर्तिताः ॥
(देवीभा० ११।१७।९९-१०१, याज्ञवल्क्यस्मृति, आचाराध्याय, बालम्भट्टी टीका)
१. सुमुखम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको मोड़कर परस्पर मिलाये ।
२. सम्पुटम् - दोनो हाथोंको फुलाकर मिलाये ।
३. विततम् - दोनो हाथोंकि हथेलियाँ परस्पर सामने करे ।
४. विस्तृतम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियाँ खोलकर दोनोंको कुछ अधिक अलग करे ।
५. द्विमुखम् - दोनों हाथोंकी कनिष्ठिकासे कनिष्ठिका तथा अनामिकासे अनामिका मिलाये ।
६. त्रिमुखम् - पुनः दोनों मध्यमाओंको मिलाये ।
७. चतुर्मुखम् - दोनो तर्जनियाँ और मिलाये ।
८. पञ्चमुखम् - दोनो अँगूठे और मिलाये ।
९. षण्मुखम् - हाथ वैसे ही रखते हुए दोनो कनिष्ठिकाओंको खोले ।
१०. अधोमुखम् - उलटे हाथोंकी अँगुलियोंको मोड़े तथा मिलाकर नीचेकी ओर करे ।
११. व्यापकाञ्जलिकम् - वैसे ही मिले हुए हाथोंको शरीरकी ओर घुमाकर सीधा करे ।
१२.शकटम् - दोनो हाथोंको उलटाकर अँगूठेसे अँगूठा मिलाकर तर्जनियोंको सीधा रखते हुए मुट्ठी बाँधे ।
१३. यमपाशम् - तर्जनीसे तर्जनी बाँधकर दोनो मुट्ठियाँ बाँधे ।
१४. ग्रथितम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको परस्पर गूँथे ।
१५. उन्मुखोन्मुखम् - हाथोंकी पाँचो अँगुलियोंको मिलाकर प्रथम बायेंपर दाहिना, फिर दाहिनेपर बायाँ हाथ रखे ।
१६. प्रलम्बम् - अँगुलियोंको कुछ मोड़ दोनो हाथोंको उलटाकर नीचेकी ओर करे ।
१७. मुष्टिकम् - दोनों अँगूठे ऊपर रखते हुए दोनों मुट्ठियाँ बाँधकर मिलाये ।
१८. मत्स्यः - दाहिने हाथकी पीठपर बायाँ हाथ उलटा रखकर दोनो अँगूठे हिलाये ।
१९. कूर्मः - सीधे बाये हाथकी मध्यमा, अनामिका तथा कनिष्ठिकाको मोड़कर उलटे दाहिने हाथकी मध्यमा, अनामिकाको उन तीनों अँगुलियोंके नीचे रखकर तर्जनीपर दाहिनी कनिष्ठिका और बायें अँगूठेपर दाहिनी तर्जनी रखे ।
२०. वराहकम् - दाहिनी तर्जनीको बाये अँगूठेसे मिला, दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको परस्पर बाँधे ।
२१. सिंहाक्रान्तम् - दोनो हाथोंको कानोंके समीप करे ।
२२. महाक्रान्तम् - दोनो हाथोंकी अँगुलियोंको कानोंके समीप करे ।
२३. मुद्‌गरम् - मुट्ठी बाँध, दाहिनी कुहनी बायी हथेलीपर रखे ।
२४. पल्लवम् - दाहिने हाथकी अँगुलियोंको मुखमे सम्मुख हिलाये ।
गायत्री-मन्त्रका विनियोग - इसके बाद गायत्री-मन्त्रके जपके लिये विनियोग पढ़े-
ॐकारस्य ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दः परमात्मा देवता, ॐ भूर्भुव्ह स्वरिति महाव्याह्रतीनां परमेष्ठी प्रजापति-ऋषिर्गायत्र्युष्णिगनुष्टुभश्छन्दांसि अग्निवायुसूर्या देवताः, ॐ तत्सवितुरित्यस्य विश्वामित्रऋषिर्गायत्री छन्दः सविता देवता जपे विनियोगः ।
इसके पश्चात् गायत्री-मन्त्रका १०८ बार जप करे । १०८ बार जप करे । १०८ बार न हो सके तो कम-से कम १० बार अवश्य जप किया जाय । संध्यामे गायत्री मन्त्रका करमालापर जप अच्छा माना जाता है, गायत्री मन्त्रका २४ लक्ष जप करनेसे एक पुरश्चरण होता है । जपके लिये सब मालाओमें रुद्राक्षकी माला श्रेष्ठ है ।
शक्तिमन्त्र जपनेकी करमाला - चित्र संख्या १ के अनुसार अङ्क एकसे आरम्भकर दस अङ्कतक अँगूठेसे जप करनेसे एक करमाल होती है (दे० भा० ११।१९।१९) तर्जनीका मध्य तथा अग्रपर्व सुमेरु है । इस प्रकार दस करमला जप करनेसे जप-संख्या एक सौ हो जायगी, पश्चात चित्र-संख्या २ के अनुसार अङ्क १ असे आरम्भ कर अङ्क ८ तक जप करनेसे १०८ की एक माला होती है ।
मध्याह्न-संध्या
(प्रातः संध्याके अनुसार करे)
प्राणायामके बाद 'ॐ सूर्यश्च मेति' के विनियोग तथा आचमन-मन्त्रके स्थानपर नीचे लिखा विनियोग तथा मन्त्र पढ़े ।
विनियोग - ॐ आपः पुनन्त्विति ब्रह्मा ऋषिर्गायत्री छन्दः आपो देवता अपामुपस्पर्शने विनियोगः ।
आचमन - ॐ आपः पुनन्तु पृथिवी पृथ्वी पूता पुनतु माम् । पुनन्तु ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मपूता पुनातु माम् । यदुच्छिष्टमभोज्यं च यद्वा दुश्चरितं मम । सर्वं पुनन्तु मामापोऽसतां च प्रतिग्रह स्वाहा ।

उपस्थान - चित्रके अनुसार दोनों हाथ ऊपर करे ।
अर्घ्य - सीधे खड़े होकर सूर्यको एक अर्घ्य दे ।
विष्णुरूपा गायत्रीका ध्यान -
ॐ मध्याह्ने विष्णुरूपां च तार्क्ष्यस्थां पीतवाससाम् ।
युवतीं च यजुर्वेदां सूर्यमण्डलसंस्थिताम् ॥।
सूर्यमण्डलमें स्थित युवावस्थावाली, पीला वस्त्र, शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण कर गरुडपर बैठी हुइ यजुर्वेदस्वरूपा गायत्रीका ध्यान करे ।
सायं-संध्या
(प्रातः संध्याके अनुसार करे)
उत्तराभिमुख हो सूर्य रहते करना उत्तम है । प्राणायामके बाद 'ॐ सूर्यश्च मेति०' के विनियोग तथा आचमन-मन्त्र के स्थानपर नीचे लिखा विनियोग तथा मन्त्र पढ़कर आचमन करे ।
विनियोग - ॐ अग्निश्च मेति रुद्र ऋषिः प्रकृतिशन्दोऽग्निर्देवता अपामुपस्पर्शेन विनियोगः ।
आचमन - ॐ अग्निश्च मा मन्युश्च मन्युपतयश्च मन्युकृतेभ्यः पापेभ्यो रक्षन्ताम् । यदह्ना पापमकार्षं मनसा वाचा हस्ताभ्यां पद्‌भ्यामुदरेण शिश्ना अहस्तदवलुम्पतु । यत्किंच दुरितं मयि इदमहमापोऽमृतयोनौ सत्ये ज्योतिषि जुहोमि स्वाहा ।

अर्घ्य - पश्चिमाभिमुख होकर बैठै हुए तीन अर्घ्य दे ।
उपस्थान - चित्रके अनुसार दोनो हाथ बंदकर कमलके सदृश करे ।
शिवरूपा गायत्रीका ध्यान -
ॐ सायाह्ने शिवरूपां च वृद्धां वृषभवाहिनीम् ।
सूर्यमण्डलमध्यस्थां सामवेदसमायुताम् ॥
सूर्यमण्डलमें स्थित वृद्धारूपा त्रिशूल, डमरू, पाश तथा पात्र लिये वृषभपर बैठी हुई सामवेदस्वरूपा गायत्रीका ध्यान करे ।
आशौचमें संध्योपासनकी विधि
महर्षि पुलस्त्यने जननाशौच एवं मरणाशौचमें संध्योपासनकी अबाधित आवश्यकता बतलायी है । किंतु आशौचमें इसकी प्रक्रिया भिन्न हो जाती है । शास्त्रोंने इसने मानसी संध्याका विधान किया है । इसमें उपस्थान नही होता । यह संध्या आरम्भसे सूर्यके अर्घ्यतक ही सीमित रहती है । यहाँ दस बार गायत्रीका जप आवश्यक है । इतनेसे संध्योपासनका फल प्राप्त हो जाता है ।
एक मत यह है कि इसमें कुश और जलका भी प्रयोग न हो । निर्णीत मत यह है कि बिना मन्त्र पढ़े प्राणायाम करे, मार्जन-मन्त्रोंका मनसे उच्चारण कर, मार्जन करे । गायत्रीका सम्यक् उच्चारण कर सूर्यको अर्घ्य दे । फिर पैठीनसिके अनुसार सूर्यको जलाञ्जलि देकर प्रदक्षिणा और नमस्कार करे । आपत्तिके समय, रास्तेमें और अशक्त होनेकी स्थितिमें भी मानसी संध्या की जाती है ।
संध्या-विधि समाप्त
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Tuesday 25 June 2019

फलोदी इतिहास

 

फलोदी माँ लटियाल की पावन भूमि हें साधु संतो द्वारा इसे पश्चिम काशी कहा जाता हें फलोदी की स्थापना से पूर्व यह विजयपुर नाम से जाना जाता था जो कालचक्र द्वारा विनष्ट हो चुका था फलोदी की स्थापना 1515 मे माँ लटियाल की अनुकम्पा से सिद्ध पुरुष सिद्धूज़ी कल्ला द्वारा की गयी ⛳
⛳⛳सिद्धू ज़ी कल्ला क़ा फलोदी आगमन व फलोदी की स्थापना ⛳⛳
सिद्धूज़ी अर्वाचीन फलोदी कें संस्थापक थे इनका जन्म आसनीकोट मे हरपाल ज़ी लूद्र कें घर 1475 मे हुवा  वे अपने परगने कें शासक थे तथा लगतार जेसलमेर राजा कें साथ विवाद कें कारण चिंतित थे माँ लटियाल कें आदेशानुसार सिद्धूज़ी ने आसनीकोट जेसलमेर से इन्द्रलोक से अवतरित अपनी अधीष्टत्री देवी माँ लटियाल  140 गाडो व 70 व्यक्तियों कें काफिले कें साथ पलायन किया ओर माँ लटियाल की आज्ञानुसार जहा मेरा रथ रुकेगा वही निवास होगा यह प्राचीन विजयनगर का भाग्य था की यही खेजड़ कें पेड़ मे माँ लटियाल क़ा रथ अटक गया ओर यही पर फलोदी की स्थापना हुवी

फलोदी कें समंध मे पौराणिक मान्यता हें की यहा पानी की समस्या थी  तब सिद्धू ज़ी ने सोचा यह फलीभूत केसे होगा तब माँ लटियाल ने फलने फूलने क़ा वरदान दिया  जिससे इस स्थान क़ा नाम फलवर्धीका पड़ा

फलोदी स्थित किले कें निर्माण फला नामक पुष्करणा ब्राह्मण की विधवा पुत्री द्वारा करवाया गया था  इसलिए राजा द्वारा इस स्थान क़ा नाम फला+धी फलाधी रखा गया जो वर्तमान मे अपब्रस  फलोदी से पहचाना जाता हें

⛳⛳ माँ भगवती लटियाल कें नाम की चर्चा
माँ भगवती लटियाल की लटे बिखरी हुवी हें इस कारण लटियाल पुकारते हें (ललिता सहस्त्रनाम)

⛳⛳मन्दिर की स्थापना व स्वरूप
माँ लटियाल कें मन्दिर क़ा निर्माण सिद्धूज़ी कल्ला द्वारा करवाया गया था जो चबूतरे पर था बाद मे भक्तो व उपासकों संख्या बढ़ने पर विद्वान फुठुर ज़ी व्यास व पन्नालाल ज़ी छगाणी द्वारा वेदिक रीति से माँ लटियाल को सिहासन पर स्थापित की गयी तत्पश्चात बंशीलाल ज़ी व्यास द्वारा स्वर्ण शिखर की स्थापना कर प्रतिष्ठा सम्पन की वर्तमान मन्दिर क़ा निर्माण 21 नवम्बर 1929 को तत्कालीन हाकिम भावीसा की उपस्थिति मे  किया गया
मन्दिर मे सवंत  1515  से आज तक (500 वर्षो से अधिक ) केसर ज्योति जल रही हें  इस ज्योति मे काजल की जगह केसर उत्पन होता हें  जो माँ लटियाल क़ा चमत्कार हें
Mohit M Purohit

महामानव सेठ अनोपचंद् जी हुडिया

फलोदी को आवश्यकता है आज फिर ऐसे महामानव की -- अब स्मृति शेष है -- महामानव स्व. अनोपचंद जी हुडिया " सेवा ही परमोधर्म व अहिंस...